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हृदय के उदगारों को शब्द रूप प्रदान करना शायद हृदय की ही आवश्यकता है.

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Sunday, April 28, 2013

Jimmedar main hun जिम्मेदार मैं हूँ






तुम  जी  लिए  बिन  मेरे
मिटा  दिए  शब्दों  के  घेरे 
मैं  अग्नि  सा  तपता  रहा
बस  दूर  से  तकता  रहा


जिस  गली  हुई  आँख  नम
उस  गली  से  मुड़  लिया
किस  नगर  अब  जायें  हम
हर  गली  से  है  मोड़  लिया


तुमने  कहा  कुछ  नही  बदला
क्या  सच  नहीं  है  बदला
है  याद  कहो  कितनी  चाँद  रात  रहे  मुझ  बिन
हरी  चरणों  में  किये  अर्पित  कुसुम, गिने  दिन  


अब  लौटूं  भी  तो  कहाँ
मुझपर  बंद  द्वार  किये  वहां
तुमने  कहा  है  यहाँ-वहां  शांति 
हूँ  मौन  दे  दी  तुम्हे  तुम्हारी  शांति 


अब    सतायेंगे  तुम्हे  मेरे  सवाल
  खोजने  पड़ेंगे  हृदय  में  जवाब
मेरे  नम  नैन    करेंगे  कोई  बवाल
हो  खुश  कभी    होंगे  सवाल-जवाब


मैंने  जो  खोया-पाया  था  मेरा  किया 
नेह  भरा  दिल  क्यूँकर  तुमको  दिया
जिम्मेदार  मैं  ही  हूँ  सच  कहा  तुमने  
नेह  पुष्प  कुचला  अच्छा  किया तुमने 
11.36am, 23/4/13

7 comments:

  1. -प्रबाव शाली रचना
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest postजीवन संध्या
    latest post परम्परा

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  2. drd se bhari huii ek kavita ..hriday sprshi ..

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  3. बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति.

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  4. अपने किये को खुद ही निभाना होता है ..
    दमदार रचना है ...

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  5. आज के दिन कुछ ज़्यादा ही निराशावादी नहीं लिख दिया आपने ?
    वैसे बहुत ही मर्मस्पर्शी लिखा है।

    जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!

    सादर

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    Replies
    1. शुभकामनाओं के लिए आभार

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  6. दमदार रचना बहुत अच्छी

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आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.